Monday, April 13, 2020

परम गुरू हुजूर सरकार साहब के बचन उपदेश


[02/04, 14:16] RS Bhadeji



प्रस्तुति - आनंद कुमार


: सतसंग के उपदेश
भाग-2
(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)
बचन (56)

सतसंगी भाइयों व बहनों की अहम ज़िम्मेवारी।

(पिछले दिन का शेष)
          ये बातें कहने और सुनने के लिये तो निहायत आसान हैं लेकिन अमल में लानी आसान नहीं हैं। हमारी रहनी गहनी में इच्छानुसार तब्दीली तभी हो सकती है जब हमारे दिल में संसार की जानिब से किसी क़दर सच्चा वैराग्य और हुज़ूर राधास्वामी दयाल के चरणों में सच्चा अनुराग आ जावे। जिस सतसंगी भाई का हृदय इस वैराग्य और अनुराग से ख़ाली है उसकी रहनी गहनी आम दुनियादारों से किसी हालत में बेहतर नहीं हो सकती। ये वैराग्य व अनुराग कैसे पैदा हों? ख़ास क़िस्म के संस्कारों से। ख़ास क़िस्म के संस्कार कैसे हासिल हों? इसके लिये चेतकर सतसंग करना ही अकेला इलाज है। यह दुरुस्त है कि कामिलों, बुज़ुर्गों व प्रेमीजनों के रचित ग्रन्थों को पढ़ने और संसार में दुख सुख की ठोकरें खाने से भी इन्सान की समझ बूझ में बहुत कुछ तब्दीली होती है नीज़ ऐतिहासिक ग्रन्थों के पढ़ने, दुनिया की हालतों का मुशाहिदा करने और जवानी का दौर ख़त्म होकर अधेड़ अवस्था आने पर भी इन्सान के ख़्यालात बदल जाते हैं लेकिन जिस दर्जे का वैराग्य और जिस क़िस्म का अनुराग परमार्थी रहनी गहनी हासिल होने के लिये दरकार है वह इस तरीक़े से हासिल नहीं होता। योगदर्शन में फ़रमाया गया है कि प्रत्यक् चेतन यानी आत्मदर्शन हासिल होने पर ”पर वैराग्य“ की प्राप्ति होती है। जिन महापुरुषों को आत्मदर्शन प्राप्त होकर ”पर वैराग्य“ हासिल हुआ है उनके चरणों में हाज़िरी देने, उनके अमृतबचनों व रहनी गहनी का असर लेने और उनकी दयादृष्टि व सहायता से जो संस्कार पैदा होते हैं वे और ही क़िस्म के होते हैं इसलिये सतसंगी भाइयों पर फ़र्ज़ है कि जब दया से हुज़ूर राधास्वामी दयाल अपने चरणों की नज़दीकी इनायत फ़रमायें यानी उन्हें सतसंग में शामिल होने के लिये मौक़ा व सहूलियत बख़्शें तो वे उसका पूरा फ़ायदा उठायें और इस तरीक़े से चेतकर सतसंग करें कि उन्हें सतसंग का पूरा फ़ायदा हासिल हो और वे ख़ास संस्कार, जिनकी महिमा ऊपर बयान की गई, उन्हें भरपूर हासिल हों और कुछ अर्सा इस तरह सतसंग का असर लेकर सतसंगी भाई अपनी हालत पर दृष्टि डालें और देखें आया उनकी रहनी गहनी में कोई ख़ुशगवार तब्दीली हुई है या नहीं। अगर हुज़ूर राधास्वामी दयाल हम जीवों को अपने चरणों की नज़दीकी का शुभ अवसर बख़्शिश फ़रमाते रहें और सतसंगी भाई व बहनें इस तरह अमल करते रहें और इस तरह हमारे अन्दर तब्दीलियाँ वाक़ै हों तभी सतसंग का दुनिया में क़ायम होना और हमारा हुज़ूर राधास्वामी दयाल की चरणशरण लेना सफल हो सकता है और तभी सर्व साधारण की तवज्जुह सतसंग की तालीम और आदर्श की जानिब मुख़ातिब हो सकती है और तभी वह अहम ज़िम्मेवारी, जो औरों से पहले हुज़ूर राधास्वामी दयाल की चरण शरण मिलने की वजह से हम पर आयद होती है, पूरे तौर से व हुज़ूर राधास्वामी दयाल की मर्ज़ी के मुवाफ़िक अदा हो सकती है।
राधास्वामी
[07/04, 14:10] +91 78707 84148: 💥💥💥
21 जनवरी, 1911- मन को जितनी ही बेचैनी हो, उतना ही परमार्थी फ़ायदा है, क्योंकि जब परमार्थ में दिल न लगे और कुछ बनता नज़र न आवे और उधर स्वार्थ भी ख़राब मालूम होवे, तो बहुत ही बेचैन होता है और कई जतन करता है। सब रायगाँ (व्यर्थ) होते हुए मालूम होते हैं। उस वक्त़ एक तरह की थकान मालूम करता है और हार जाता है। और जब यह हालत हुई,तो ख़ुद ही दीन हुआ और जब दीन हुआ, तो ज़रूर मालिक दया फ़रमाता है। तो जिनका मन हर दम उदास रहे, उनके अन्दर हर वक्त़ दया की धार बरसती रहती है, हत्ता कि (यहाँ तक कि) तन और मन की कुछ परवाह नहीं होती। एक तरह इनको मालिक पर निछावर कर देते हैं।           
(बचन भाग 1 से, परम गुरु सरकार साहब का बचन न. 31)
 राधास्वामी
[08/04, 07:58] RS Bhadeji Aanand Kumar: परम गुरु सरकार साहब के बचन
(बचन 17)
              4 जनवरी 1911- फ़रमाया कि महाराज साहब एक कहानी सुनाया करते थे। एक शहर में एक मँगता यानी भीख माँगने वाला था। उसका क़ायदा था कि माँग माँग कर जो रुपया होता था, वह एक गुदड़ी में सीता जाता था। होते होते सत्तर या अस्सी रुपये उसके पास हो गए। इतने में शहर में हैज़ा हुआ और वह मर गया। लेकिन मरने से पहले उस गुदड़ी को ज़मीन में गड्ढा करके दबा गया। कुछ अरसे के बाद उस गड्ढे के पास से कुछ बदमाश लोगों का गुज़र हुआ। उन्होंने वहाँ एक साँप बैठा हुआ देखा। उनको ख़्याल आया कि यहाँ एक फ़क़ीर रहता था। शायद वह यहाँ रुपया दबा गया होगा। उन्होंने गड्ढा खोद कर रुपया निकाल लिया और ख़ूब ऐश में उड़ाया। थोड़े ही अरसे के बाद वह सब के सब यके बाद दीगरे (एक के बाद एक) बड़ी तकलीफ़ से हैज़े से मरे। दूसरी कहानी यह सुनाई कि एक जंगल में एक भक्तजन रहता था। वहाँ चंद डाकू गुज़रे और साधू के पास रात भर रहे। सुबह जाते वक्त़ वह उसका लोटा ले गए कि रास्ते में पानी पीने के काम आवेगा। थोड़ी दूर जाकर उनको ख़्याल आया कि हमने लोटा लाकर उस साधू की चोरी की, यह ठीक नहीं है। उसी वक्त़ वापस आकर साधू को लोटा दिया और बड़ी आजिज़ी (दीनता) से माफ़ी माँगी।
              इन दोनों कहानियों का यह मतलब है कि जो जो चीज़ जिस तरह की कमाई से बनाई या इकट्ठी की हुई है, उसका असर ज़रूर उसके लेने वाले पर पड़ता है और यह अटल बात है। किसी शख़्स को किसी दूसरे की चीज़ ग्रहण नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस तरह से जो चीज़ इकट्ठी हुई है, उस पर बल्कि उसके एक एक ज़र्रे पर उसी तरह के कर्म का भार चढ़ा हुआ है। एक तरह से वह उसके कर्मों से लदी हुई है। जो शख़्स वह चीज़ लेगा, वह उन कर्मों का भार अपने ऊपर चढ़ावेगा। बल्कि एक सतसंगी को दूसरे सतसंगी की भी चीज़ नहीं लेनी चाहिए, न ही खान-पान करना चाहिए,क्योंकि हर एक के कर्म मुख़्तलिफ़ (भिन्न भिन्न) हैं, किसी के ज़्यादा, किसी के कम। अगर मजबूरी हालत में कोई चीज़ लेनी पड़े, तो उसका एवज़ उसको ज़रूर देना चाहिए। अगर वह न लेवे, तो परमार्थ में उतना ख़र्च कर देवे। अगर दया से संत महात्मा किसी की चीज़ इस्तेमाल करें, तो देने वाले पर बड़ी दया होती है।
              इस वास्ते अपनी रहनी गहनी बिलकुल ठीक रखनी चाहिए। जो अपनी ख़ास कमाई है, वही ख़र्च करो किसी की चीज़ मत लो, वरना उससे दुगना तिगुना नुक़सान होगा। वह लोग जो अपनी कमाई हुई चीज़ इस्तेमाल करते हैं, बड़े ख़ुश रहते हैं। लोग जो यह ख़्याल करते हैं कि अगर हमको ख़ूब रुपया मिल जाय,तो परमार्थ बड़ी सहूलियत से कर सकेंगे, यह ग़लत है, बल्कि असली परमार्थ वही लोग कर सकते हैं जो कि हमेशा डाँवाडोल रहते हैं। हर वक्त़ दुख और फ़िक्र में रहें और उदास रहें। भक्तजन को बड़ा गंभीर रहना चाहिए। ऐसा मालूम होवे कि मालिक ने उसे हर चीज़ बख़्शी हुई है। किसी से हेकड़ी नहीं करनी चाहिए। अगर किसी बड़े आदमी के पास जाना पड़े, बड़े अदब से पेश आओ। भक्तजन को तरबियतयाफ़्ता (trained) होना चाहिए। जब किसी भक्तजन को किसी दरबार वगैरह में जाने का मौक़ा हुआ है, बड़ी उम्दगी से सब क़ायदे निबाहते हैं।         
 (बचन भाग-1)
[08/04, 15:17] +91 78707 84148: परम गुरु सरकार साहब के बचन
(बचन 17)
              4 जनवरी 1911- फ़रमाया कि महाराज साहब एक कहानी सुनाया करते थे। एक शहर में एक मँगता यानी भीख माँगने वाला था। उसका क़ायदा था कि माँग माँग कर जो रुपया होता था, वह एक गुदड़ी में सीता जाता था। होते होते सत्तर या अस्सी रुपये उसके पास हो गए। इतने में शहर में हैज़ा हुआ और वह मर गया। लेकिन मरने से पहले उस गुदड़ी को ज़मीन में गड्ढा करके दबा गया। कुछ अरसे के बाद उस गड्ढे के पास से कुछ बदमाश लोगों का गुज़र हुआ। उन्होंने वहाँ एक साँप बैठा हुआ देखा। उनको ख़्याल आया कि यहाँ एक फ़क़ीर रहता था। शायद वह यहाँ रुपया दबा गया होगा। उन्होंने गड्ढा खोद कर रुपया निकाल लिया और ख़ूब ऐश में उड़ाया। थोड़े ही अरसे के बाद वह सब के सब यके बाद दीगरे (एक के बाद एक) बड़ी तकलीफ़ से हैज़े से मरे। दूसरी कहानी यह सुनाई कि एक जंगल में एक भक्तजन रहता था। वहाँ चंद डाकू गुज़रे और साधू के पास रात भर रहे। सुबह जाते वक्त़ वह उसका लोटा ले गए कि रास्ते में पानी पीने के काम आवेगा। थोड़ी दूर जाकर उनको ख़्याल आया कि हमने लोटा लाकर उस साधू की चोरी की, यह ठीक नहीं है। उसी वक्त़ वापस आकर साधू को लोटा दिया और बड़ी आजिज़ी (दीनता) से माफ़ी माँगी।
              इन दोनों कहानियों का यह मतलब है कि जो जो चीज़ जिस तरह की कमाई से बनाई या इकट्ठी की हुई है, उसका असर ज़रूर उसके लेने वाले पर पड़ता है और यह अटल बात है। किसी शख़्स को किसी दूसरे की चीज़ ग्रहण नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस तरह से जो चीज़ इकट्ठी हुई है, उस पर बल्कि उसके एक एक ज़र्रे पर उसी तरह के कर्म का भार चढ़ा हुआ है। एक तरह से वह उसके कर्मों से लदी हुई है। जो शख़्स वह चीज़ लेगा, वह उन कर्मों का भार अपने ऊपर चढ़ावेगा। बल्कि एक सतसंगी को दूसरे सतसंगी की भी चीज़ नहीं लेनी चाहिए, न ही खान-पान करना चाहिए,क्योंकि हर एक के कर्म मुख़्तलिफ़ (भिन्न भिन्न) हैं, किसी के ज़्यादा, किसी के कम। अगर मजबूरी हालत में कोई चीज़ लेनी पड़े, तो उसका एवज़ उसको ज़रूर देना चाहिए। अगर वह न लेवे, तो परमार्थ में उतना ख़र्च कर देवे। अगर दया से संत महात्मा किसी की चीज़ इस्तेमाल करें, तो देने वाले पर बड़ी दया होती है।
              इस वास्ते अपनी रहनी गहनी बिलकुल ठीक रखनी चाहिए। जो अपनी ख़ास कमाई है, वही ख़र्च करो किसी की चीज़ मत लो, वरना उससे दुगना तिगुना नुक़सान होगा। वह लोग जो अपनी कमाई हुई चीज़ इस्तेमाल करते हैं, बड़े ख़ुश रहते हैं। लोग जो यह ख़्याल करते हैं कि अगर हमको ख़ूब रुपया मिल जाय,तो परमार्थ बड़ी सहूलियत से कर सकेंगे, यह ग़लत है, बल्कि असली परमार्थ वही लोग कर सकते हैं जो कि हमेशा डाँवाडोल रहते हैं। हर वक्त़ दुख और फ़िक्र में रहें और उदास रहें। भक्तजन को बड़ा गंभीर रहना चाहिए। ऐसा मालूम होवे कि मालिक ने उसे हर चीज़ बख़्शी हुई है। किसी से हेकड़ी नहीं करनी चाहिए। अगर किसी बड़े आदमी के पास जाना पड़े, बड़े अदब से पेश आओ। भक्तजन को तरबियतयाफ़्ता (trained) होना चाहिए। जब किसी भक्तजन को किसी दरबार वगैरह में जाने का मौक़ा हुआ है, बड़ी उम्दगी से सब क़ायदे निबाहते हैं।         
 (बचन भाग-1)
[09/04, 07:38] +91 78707 84148: परम गुरु सरकार साहब के बचन
बचन 33
              23 जनवरी, 1911- आज उन वकील साहब ने कल के बचन में से एक दो बातें फिर दरियाफ़्त कीं। एक तो यह कि मालिक कैसे नर शरीर में आ सकता है और जब से उसका अवतार होता है, आदि से अन्त तक क्या वही ताक़त उसको होती है। फ़रमाया कि जैसे कल बयान किया गया, मालिक लहर रूप होकर ख़ुद नर चोला धारण करके अवतार लेता है, क्योंकि नर शरीर सबसे उत्तम है। और सब मत वालों ने भी लिखा है, मसल्न लिखा है कि Man was made after the image of God (मनुष्य का रूप परमात्मा के रूप की नक़्ल है)। जब से मालिक गर्भ में जन्म लेता है, तब से सर्व समर्थ होता है। वह अपने बनाए हुए laws (क़ानून) का breaker (तोड़ने वाला) नहीं होता, बल्कि उनका ज़्यादा पालन करता है। इस वास्ते जैसे संसार में आम जीव पैदा होते हैं, उसी तरह वह भी जन्म धारण करता है। उसी तरह बचपन का ज़माना, फिर जवानी का ज़माना गुज़रता है। फिर वह अन्दर के सब भेद खोल कर और जीवों को उपदेश करके अभ्यास करवा कर उस रास्ते पर संग संग ले जाता है। ज़्यादा परख और सँभाल आख़िर वक्त़ पर मालूम होती है जो कि एक प्रत्यक्ष सबूत (ocular demonstration) है।

बाज़ मामूली सतसंगियों का हाल सुना गया है कि आख़ीर वक्त़ पर कैसे उनकी सँभाल होती है और वह बाहोश (होश में रहते हुए) बड़ी ख़ुशी के साथ मरते दिखाई देते हैं। और बाक़ी चाहे जितना आलिम फ़ाज़िल, ज्ञानी हो, बस सुना जाता है कि पन्द्रह दिन पहले से ही बेहोश हैं, कुछ पता या होश नहीं। तो गुरु अपना मिशन पूरा करने आते हैं। और जो सैकंड सैकंड पर terrible isolation (सख़्त बिछोहा) मौत के होने पर होता है, उसमें वही संगी होते हैं। उस वक्त़ का ख़्याल करना चाहिए कि किसके साथ वह रास्ता चलता है। बड़े बड़े जोधा, ऋषि, मुनि उस रास्ते पर चलने से काँपते हैं।
              इतना समझाने के बाद उन वकील साहब ने पूछा तो क्या गुरु ईश्वर से बड़े होते हैं। इस पर सब हँस पड़े और सरकार साहब ने फ़रमाया कि बड़े क्या, बहुत बड़े। यह ईश्वर ही तो फ़िसाद की जड़ है। यह सब पसारा उसी का है। बड़ा भारी शैतान है। हर तरह के ऐब और पाप तो वही करवाता है। बग़ैर परम गुरु के और किसी को मालिक कहना कुफ़्र (नास्तिकता) का कलमा (बचन) है। अजी, गुरु की महिमा सबने कही है। गीता में भी लिखा है। मौलना रूम ने साफ़ लिखा है। ऐसे गुरु बड़े भाग से मिलते हैं।

स्वामीजी महाराज जब सिर्फ़ पाँच साल के थे,तो तुलसी साहब, जो कि संत थे और कभी कभी उनके घर आया करते थे, आए और स्वामीजी महाराज की माता को कहा कि माई, अब हमारा यहाँ आने का काम नहीं। तुम्हारे घर में परम संत अब आ गए हैं। इसके बाद वह चले गए और थोड़े ही दिनों के बाद चोला छोड़ दिया। तो जिनको पहचान होती है, वह परख लेते हैं। हम तुम तो सिर्फ़ उसूल ही पहले समझते हैं। फिर उनसे जुगती लेकर अभ्यास करें, तब कुछ पहचान होती है और वह भी अगर गुरू आप बख़्शें।
राधास्वामी
[13/04, 10:53] RS Bhadeji Aanand Kumar: Db Pb Gaurav Sharma WhatsApp:
स्मारिका
परम गुरु सरकार साहब
              90. यद्यपि सरकार साहब की दया व मेहर से बहुत से सतसंगियों की बीमारी व तकलीफ़ें दूर हो गई थीं पर उन दयाल की अपनी बीमारी और शारीरिक तकलीफ़ चलती ही रही और उसमें कोई वास्तविक कमी नहीं आई। प्रायः यह आश्चर्य होता है कि अपने भक्तों के रक्षक गुरू महाराज अपने आपको क्यों नहीं चंगा कर लेते? एक बार हुज़ूर  साहबजी महाराज ने इसका स्पष्ट शब्दों में उत्तर 20 जून सन् 1937 ई. को अपने अन्तिम दिनों में दिया था जबकि कुर्तालम के सेक्रेटरी ने प्रार्थना की थी कि वे दयाल अपनी बीमारी को दूर फेंक दें। साहबजी महाराज ने फ़रमाया- ‘‘हुज़ूर  राधास्वामी दयाल की मौज के सामने हमारा आत्म-समर्पण बिना किसी शर्त के होना चाहिए। मैंने ख़ुद बीमारी माँगी नहीं थी। हुज़ूर  राधास्वामी दयाल अपनी मौज व मर्ज़ी से जो कुछ हमें प्रदान करें, हमें उसे ख़ुशी से स्वीकार करना चाहिए।’’ सरकार साहब ने भी abscess (ख़ास किस्म के फोड़े) की सख़्त आज़माइश का सामना अनुकरणीय सहनशीलता से किया और साहबजी महाराज बरसों तक ब्लड प्रेशर और दिल की बीमारी से पीड़ित रहे परन्तु उनमें से किसी ने भी लेश मात्र की परेशानी, घबराहट या मानसिक अशांति नहीं दिखाई।

 91. यद्यपि सरकार साहब ने कोई ख़ास किताब नहीं लिखी थी फिर भी कई ऐसे विषयों के सम्बन्ध में, जिनके विषय में बहसमुबाहिसे होते थे और जिनके विषय को स्पष्ट और पूर्ण व्याख्या की आवश्यकता थी,उन दयाल ने अपने पत्रों में और ‘प्रेम समाचार’में जो कि जून सन् 1913 ई. में प्रकाशित हुआ था, विस्तारपूर्वक लिखा। महाराज साहब के गुप्त हो जाने के पश्चात् सब से अधिक बहस की समस्या, जो उठाई गई थी, वह राधास्वामी मत के मिशन (विशेष उद्देश्य) के बारे में थी कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल का यह मिशन था या नहीं कि इस पृथ्वी से अपनी निज धार को वापिस खींच लेने से पहले तमाम रचना का उद्धार पूरा किया जाए। अगर ऐसा था तब महाराज साहब के बाद उन दयाल का दूसरा संत सतगुरू जानशीन होना चाहिए था और इन्टर रेगनम (बीच का समय जब कि कोई संत सतगुरू न हो) की थ्योरी को बीच में लाने की और इन्टर रेगनम की व्याख्या उस मानी में करने की, जिस मानी में सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव काउन्सिल के मेम्बरान करते मालूम होते थे,कोई आवश्यकता न थी।

सतसंगियों को लिखे गए अपने पत्रों में सरकार साहब ने स्पष्ट रूप से फ़रमा दिया था कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल की निजधार उस समय तक वापिस नहीं जाएगी जब तक कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल का मिशन पूरा न हो जाए और अपने लेख ‘परम गुरु’ जो कि प्रेम समाचार में प्रकाशित हुए, उन दयाल ने हमेशा के लिए इस सम्बन्ध में समस्त संदेहों और शंकाओं को दूर कर दिया। सतसंग साहित्य में संत सतगुरू की अद्वितीय स्थिति (पोज़ीशन) के बारे में इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार व्याख्या इससे पहले कभी नहीं हुई।

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