Thursday, May 21, 2020







परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

 रोजाना वाक्यात-

1 अक्टूबर 1932- शनिवार:-

सेक्रेटरी साहब दयानंद अनाथालय, आगरा ने एक खत भेजा जिसमें अनाथालय की सहायता के लिए पुरजोर अपील की है। रुपये की कमी से काम चलाना मुश्किल हो गया है । लड़कों को कपड़ा बुनना सिखलाना चाहते है , कुछ खड्डियाया चाहते हैं और काम सीखने वाले लड़कों के लिए दयालबाग में रहने व खाने-पीने का इंतजाम चाहते हैं। दो मर्तबा सत्संग से मदद दी गई थी उसकी याद दिला कर अपील की है। वाकई अनाथालय सहायता के  अधिकारी है लेकिन मुश्किल यह है कि अब खुद दयालबाग में हस्पताल है जिससे सैकड़ों देहाती मुक्त दवा लेते हैं और सरन आश्रम है जिसकी काफी तादाद गरीबों को आर्थिक सहायता मिलती है और उसके लिए काफी धनराशि सालाना आवश्यक होती है ।और सभा की आमदनी  में बवजह है निर्धनता से जनसाधारण को काफी असर है पड़ रहा है। 30 सितंबर को चालू वर्ष के 6 माह गुजर गए। बजट के हिसाब से भेंट की आमदनी 40,000/- होनी चाहिए थी लेकिन सिर्फ 33,000/- हुई।राधास्वामी दयाल हमें ऐसी सामर्थ्य बख्शे कि हम दूसरों की दिल खोलकर सहायता कर सकें और अपने काम को इच्छा अनुसार चला सके। आनाथालय को 4 खड्डियाँ पेश की गई। क्रमश:🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
[21/05, 04:08] +91 97176 60451: **परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -सत्संग के उपदेश- भाग 2 - कल से आगे:- यह अमर बयान का मोहताज नहीं है कि उस मरकजी हस्ती की हरगिज़ यह ख्वास्हिश ना थी कि कोई खास फिटरा कायम किया जावे और ना ही इस सिलसिले में किसी शख्स ने कोई खास कोशिश मा मत्न किया। लेकिन क्योंकि उनका उपदेश दुनियादारों की बातों से निराला था जो संस्कारी प्रेमियों को पसंद आया और आम लोग उसकी कदर व कीमत जानने में लाचार रहे इसलिए संस्कारी प्रेमी आप से आप आवाम से अलहदा होकर मरकजी हस्ती के गिर्द जमा हो गए और आप से आप खास ख्यालात वाले लोगों का एक गिरोह या फिकरा कायम हो गया। ऐसी सूरत में जाहिर है कि इस फिक्रें की कायमी की निस्बत किसी किस्म के एतराज दिल में उठाना कतई नावाजिब है। कुल दुनिया इस काबिल नहीं हो सकती कि किसी महापुरुष के उपदेश यकायकी ग्रहण करले। ऐसे लोगों की तादाद शुरू में नीज एक अर्से तक लाजमी तौर पर थोड़ी ही रहेगी और भी बेचारे "आलहदा फिक्रे"  के नाम से नामजद होते रहेंगे और हर शौकीन मुतलाशी को अपनी परमार्थी प्यास बुझाने के लिए इसी 'फिकरे' के अंदर शामिल होना ही पड़ेगा । अलबत्ता यह जरूर है कि जब किसी ऐसे फिकरे के अंदर से मरकजी हस्ती गायब हो जाए और उसमें कोई शख्स अपनी अंतरी साधन जानने वाला ना रहे तो अपना फिकरा छोड़कर उस फिकरे के अंदर शामिल होना कतई लहासिल व नामुनासिब है। क्रमशः 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻 **
[21/05, 04:08] +91 97176 60451: **परम गुरु हुजूर महाराज -प्रेम पत्र -भाग 1- (21)-【 सब जीवों को अभ्यास सुरत शब्द का वास्ते कल्याण और उद्धार अपने जीव के करना चाहिए।】-( 1) सब लोग हर रोज नौ द्वार के बार बरत रहे हैं यानी( दो आंखों के, दो कानों के, दो नाक के, एक में पेशाब ,और एक पाखानि का)  कुल नौ द्वारे जो पिंड में है इनमें होकर सूरत कि धार दुनिया के अनेक तरह के भोगों और पदार्थों में बरतावा  कर रही है और एक एक द्वार का रस और मजा जो हासिल होता है उसी में सब जीवो का निहायत दर्जे का बंधन हो रहा है ।।              (2)  सभी इंद्रियों का पूरा पूरा भोग किसी बिरले जीव को ,जैसे महाराजो के महाराजा को, हासिल होगा पर थोडी इंद्रियों का भोग तो थोड़ा हर एक जीव को अपनी अपनी ताकत और सामान के मुआफिक हासिल है और उसमें इस कदर आसक्ति यानी बंधन मन का हो रहा है कि बगैर उसके जीव अपनी जिंदगी मुश्किल समझता है और उसके छोड़ने में अपने जीव की हानि देखता है ।।                                                            (3)  सूरत की बैठक तीसरे तिल में है जो दोनों आंखों के मध्य के मुकाबले अंदर की तरफ है और उसी स्थान से सब इंद्रियों का सूत लगा हुआ है और उसी स्थान से( जो  सहसदलकँवल के नीचे है) सुरत की धारे सब इंद्रियों में और कुल देह के अंग अंग में जारी हुई है , गोया सुरत जो सूरज के मुआफिक है अपनी किरनियों यानी धारो से सब देह में व्यापक हो रही है से और अपनी धारों से अंग अंग को चैतन्य कर रही हैं।।            (4)  जबकि सूरत के की एक एक धार में जो कि एक एक इंद्री के स्थान पर आकर कार्यवाही करती है, इस कदर रस और आनंद है कि कोई कोई आदमी सिर्फ एक एक इंद्री के रस और मज के शौक में अपनी जान और माल सब दे देते हैं ,जैसे शराबी या अफीम खाने वाले और चटोरे खाने पीने और नशे के शौक वाले जवान इंद्री के बस होकर अपना  धन और तध उसके भेंट कर देते हैं और तमाशाबीन यानी वेश्यागामी आदमी का कामी इंद्री के बस होकर अपना जान और माल उस काम में खर्च कर देता है और अपने अजीज और रिश्तैदार और बिरादरी की मोहब्बत हो शर्म और खौफ सब छोड़ देता है , तो रुह यानी सुरत की धार में जो ऊँचे मुकाम यानी दसवें द्वार से पिंड में आती है (और जो अपने मुकाम पर बैठकर और अनेक धार होकर मिसल हजारा फव्वारा के तमाम बदन में फैली है ) किस कदर रस और आनंद होना चाहिए यानी उस.धार को कुल रस और मजे और आनंद  का (जो पिंड में इंद्रियों के वसीले हासिल हो सकते हैं) भंडार समझना चाहिए।.  🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**

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