Wednesday, May 27, 2020

दावाग्नि पान




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"दावाग्नि पान

एक समय गर्मी के दिनों में सखाओं के साथ श्रीकृष्ण गायों को यमुना में जलपान कराकर उन्हें चरने के लिए छोड़ दिया तथा वे मण्डलीबद्ध होकर भोजन क्रीड़ा-कौतुक में इतने मग्न हो गये कि उन्हें यह पता नहीं चला कि गायें उन्हें छोड़कर बहुत दूर निकल गई हैं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। उनकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवीमें घुस गयीं।
          जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके। गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलने से वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओं के खुर और दाँतो से कटी हुई घास तथा पृथ्वी पर बने हुए खुरों के चिह्नों से उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े।
          अन्त में उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटाने की चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोर से लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणी से नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे।
          गौएँ अपने नाम की ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं। इस प्रकार भगवान उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। साथ ही बड़े जोर की आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढ़ने में सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को भस्मसात करने लगी।
          जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावनल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले, ‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानल से जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मों के ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है।'
          अपने सखा ग्वालबालों के ये दीनता से भरे वचन सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो।' भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया।
          इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए। श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं।
          सायंकाल होने पर बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे। इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं।
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                          "जय जय श्री राधे"

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