Friday, May 8, 2020

बचन उपदेश





*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

 रोजाना वाकियात-


कल का शेष:


- रात के सत्संग में कबीर साहब के एक शब्द के हवाले से बयान हुआ कि जीव को परम पद में रसाई सिर्फ सार शब्द या निज नाम की मदद से मिल सकती है। जो लोग सार शब्द से लापरवाह है और दूसरे नामों का आसरा लेते हैं उन्हें होश आने पर पछताना पड़ेगा।।                 शुक्र है कि सत्संगी भाइयों और बहनों ने ब्याह शादी के मुतअल्लिक़ मेरे मशवरा को आम तौर व्यवहारिक जामा पहनाना शुरू कर दिया है । ब्याह शादी जिंदगी को सुखारी करने के लिए की जाती है न कि मर्द या औरत के गले में चक्की का पाट बांधने की गरज से। दयालबाग में शादियां निहायत आसानी से हो जाती है। पक्षकार को सिविल मैरिज एक्ट की पाबंदी करनी होती है। शादी का खर्चा अंदाजन 8 आना होता है। न जात पात का लिहाज और न मुहुरत और तिथी का बखेड़ा।  सभी जीव मालिक के बच्चे हैं और सभी दिन मालिक के पैदा किए हुए इसका।जिसका जी चाहे शादी करें, जिसका जी ना चाहे ना करें। अलबत्ता जो शादी करना चाहे तंदुरुस्ती का सर्टिफिकेट हासिल करें। और जिन मर्दो की स्त्रियां 40 वर्ष की उम्र के बाद मर जाये , वह बेवा स्त्रियों से शादी करें । और हर शादी यथाशक्ति गन,कर्म व स्वभाव के मुताबिक होनी चाहिए अभी दो दिध हुए बेवा की शादी हुई। जिसमें उसके सब रिश्तेदार निहायत खुशी से शरीक हुए ।और दिसंबर माह के लिए अनेक शादियां मुकर्रर हो चुकी हैं । उम्मीद है कि 23 दिसंबर का दिल जो हर साल शादियों के लिये मखसूस होता है इस साल खूब रौनक का दिन होगा।🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**




परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज

- सत्संग के उपदेश- भाग 2-( 46)-
【सत्संगी भाइयों के लिए एक जरूरी मशवरा 】

:-अपनी जमात की कमजोरियों से आगाह होकर मौका मिलने पर उनके दूर करने के लिए कोशिश करना हर समझदार मेंबर का जरूरी फर्ज है और अगर कोई शख्स ऐसे मौके पर चश्मपोशी या सुस्ती  व काहिली से काम लेता है तो वह अपना व नीज कुल जमात का नुकसान करता है। हमें यह तस्लीमा करना होगा कि सतसंगमंडली के अंदर अर्सा से भेदभाव की सूरत कायम है लेकिन हमें दृढ विश्वास है कि यह हालत ज्यादा अर्से त्क कायम ना रहेगी। हुजूर राधास्वामी दयाल जरुर दया फर्माकर इस भिन्नति के जहरीले पौधे की जड़ काटने के लिए मुनासिब तजवीज व तदवीर अमल में लाएंगे और नीज उन प्रेमी भाइयों व बहनों की हर तरह व पूरी तौर से सहायता फर्मावेंगे जो सत्संगमंडली की इस मुबारक सेवा का बोझ अपने जिम्मे लेंगे।  वाजह हो कि इंसान इस संसार के  बागीचे में मिस्ल एक पेड़ के हैं। इंसान के गुण मिस्ल उस रस के हैं जो पेड़ के राग व रेशे के अंदर हर वक्त घूमता है ओर उसके शुभ बतौर उन फूलों व फलों के है जिन से पेड़ की शोभा होती है और उसके दूसरे कर्म उन पत्तो और काटों के समान है जो फूलों व फलों की हिफाजत करते हैं। नीज लाजह हो कि जो हाल एक इंसान का है वही जमात का है। जमाअते आखरी चंद इंसानों के मजमुए को कहते हैं।

क्रमशः🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**

[07/05, 02:38] Contact +918377958104:



**परम गुरु हुजूर महाराज- प्रेम पत्र -भाग 1- कल से आगे -दूसरी-( सेवा)- (२)-


इसकी तीन किस्में है । पहले मन की सेवा- यह बाहर में सत्संग और दर्शन और अंतर में सुमिरनन और ध्यान करना प्रीति और प्रतिती के साथ। दूसरे तन की सेवा- यह हाथ पांव की कार्यवाही, जैसे चरण दबाना, पंखा करना ,पानी लाना, खाना पकाना ,हाथ धुलाना, फर्ज बिछाना, झाड़ू लगाना, और जो जिस वक्त मुनासिब मालूम होवे।  तीसरे धन की सेवा- यह जिस कदर जिससे अपनी ताकत के मुआफिक हो सके, जैसे प्रसाद और भोग रखना, साधुओं का भंडारा करना, और गरीबों और मोहताजो के लिए मालिक के नाम पर खाना और कपड़ा देना, साध और सत्संगियों के लिए बाग लगाना और मकान बनवाना ।।                 पहले सेवा प्रमार्थियों को जरूर चाहिए । दूसरी उन लोगों के वास्ते खासकर मुकर्रर हुई है जिनका मन सत्संग और ध्यान और भजन में कम लगता है, पर सेवा करके प्रीति और प्रतिती उनकी बढ़ती जावेगी और दिन दिन सत्संग और अभ्यास में प्यार और शोक बढ़ता जाएगा ।और फिर यहीं सेवा उन अभ्यासियों के वास्ते भी हैं जिनके मन और सचरत भजन में ज्यादा लगते हैं और प्रेम और उमंग उनके ज्यादा होती जाती हैं कि उस उमंग में उनका मन आप ही आप थोड़ी बहुत सेवा करने को चाहता है औऋ निहायत दीनता के साथ ऐसी सेवा और सेवकों से मांग करने लगते हैं। और इसमें फायदा यह है कि उनके अंग अंग में प्रेम धस जाता है और जब जब कि सुरत उनकी ऊपर को विशेष चढ़ जाती है, तब ऐसी सेवा करके उसकी धार नीचे को यानी देंह में उतर कर उनके हाथ पैरों को, जो किसी कदर कसरत भजन से सुन्न यानी सुस्त पड़ जाते हैं, ताकत और चालाकी देती है। तीसरी सेवा उनके वास्ते हैं जिनके पास थोड़ा या बहुत धन है और इससे उनकी प्रीति और प्रतिती भी जाहिर होती है और उसकी तरक्की भी होती है क्योंकि जब उनको सच्ची प्रीति और प्रति मालिक और गुरु के चरणों में आई, तब मुमकिन नहीं कि उनसे कोई सेवा तन और मन और धन की बाकी रह जावे ।और दुनियाँ में भी जहां आपस में मोहब्बत होती है वहां बहुत खुशी के साथ धन खर्च किया जाता है और तन की सेवा भी उमंग के साथ करते हैं। फिर परमार्थ में, जहां की सच्ची प्रीति का कारखाना है, सच्चे प्रेमी और सच्चे प्रतीति वाले के मन में निहायत दर्जे की उमँग वास्ते करने इन सेवाओं के उठती है और जिस कदर ऐसी सेवायें उससे बनती जाती है, उसी कदर रस परमार्थ का अंतर और बाहर उस सेवक को ज्यादा से ज्यादा मिलता जाता है।क्रमशः🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**

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