Wednesday, October 21, 2020

तीन ग़ज़लें / सुरेंद्र सिंघल

 ग़ज़लें 


                           १


वो केवल हुक्म देता है सिपहसालार जो ठहरा 

मैं उसकी जंग लड़ता हूं मैं बस हथियार जो ठहरा


दिखावे की ये हमदर्दी तसल्ली खोखले वादे 

मुझे सब झेलने पड़ते हैं मैं बेकार जो ठहरा


तू भागम भाग में इस दौर की शामिल हुई ही क्यों 

मैं कैसे साथ दूं तेरा मैं कम रफ्तार जो ठहरा 


मोहब्बत दोस्ती चाहत वफ़ा दिल और कविता से

 मेरे इस दौर को परहेज़ है बीमार जो ठहरा


घुटन लगती न यूं ,कमरे में इक दो खिड़कियां होतीं

 मैं केवल सोच सकता हूं किराएदार जो ठहरा


उसे हर शख्स को अपना बनाना खूब आता है

मगर वो खुद किसी का भी नहीं हुशियार जो ठहरा


                            २


तमाशा बन के सहीं मैंने फब्तियां जो थीं 

तमाशबीनों के हाथों में रोटियां जो थीं


मैं आसमान से फ़रियाद किस लिए करता 

खुद आसमान से टूटीं थीं बिजलियां जो थीं


मुझे सही वो समझता था फिर भी साथ न था

कुछ आसमानी किताबों की धमकियां जो थीं


दरख़्त फूल परिंदे हैं अब भी जंगल में

 अगर नहीं हैं तो बस मुझ पे छुट्टियां जो थीं


मशीनों सिर्फ मशीनों फ़कत मशीनों में

 उलझ गई हैं कलाकार उंगलियां जो थीं


तुम आज मंच के हो और उस बुलंदी से

 हमें ही भूल गए हम कि तालियां जो थीं


खुद अपने आप तो मां-बाप का कहा माना

 हमें तो कसमें खिलातीं थीं लड़कियां जो थीं


                           ३


दिलों की आग से पिघलेंगीं चुप्पियां जो हैं

बहस से और भी उलझेंगीं गुत्थियां जो हैं


ये अक्लमंदी भरे मशवरे हैं छोड़ो भी

 अब और यूं न बढ़ाओ कि दूरियां जो हैं


हमेशा सोचती रहती हैं फा़यदे नुक़सान

 ये कैसा इश्क सा करती हैं लड़कियां जो हैं


तेरे लबों पे खिले हैं जो फूल नकली हैं

 तो इनका क्या करूं मुझ में ये तितलियां जो हैं


ये माना बंद हैं बाहर से सारे दरवाज़े

 कभी तो काम में आएंगी खिड़कियां जो हैं


सुरेंद्र सिंघल            9758876000

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