Saturday, October 10, 2020

दरयादिल

 💥💥💥 _सुप्रभात_ 💥🎡💥/ शरणागत 


मैंने सुना है, 


_एक गरीब आदमी की झोपड़ी पर…रात जोर की वर्षा हो रही थी। _*फकीर था; छोटी—सी झोपड़ी थी।* _स्वयं और उसकी पत्नी, दोनों सोए थे। आधी रात किसी ने द्वार पर दस्तक दी।_ 


_फकीर ने अपनी पत्नी से कहा: उठ, द्वार खोल दे। पत्नी द्वार के करीब सो रही थी। पत्नी ने कहा: इस आधी रात में जगह कहां है? कोई अगर शरण मांगेगा तो तुम मना न कर सकोगे। वर्षा जोर की हो रही है। कोई शरण मांगने के लिए ही द्वार आया होगा। *जगह कहां है? उस फकीर ने कहा: जगह? दो के सोने के लायक काफी है, तीन के बैठने के लायक काफी होगी।* तू दरवाजा खोल!_ 


_लेकिन द्वार आए आदमी को वापिस तो नहीं लौटाना है। दरवाजा खोला। कोई शरण ही मांग रहा था; भटक गया था और वर्षा मूसलाधार थी। तीनों बैठकर गपशप करने लगे। सोने लायक तो जगह न थी।_


_थोड़ी देर बाद किसी और आदमी ने दस्तक दी। फिर फकीर ने अपनी पत्नी से कहा: खोल। पत्नी ने कहा: अब करोगे क्या, जगह कहां है? अगर किसी ने शरण मांगी? *उस फकीर ने कहा: अभी बैठने लायक जगह है, फिर खड़े रहेंगे; मगर दरवाजा खोल।* फिर दरवाजा खोला। फिर कोई आ गया। अब वे खड़े होकर बातचीत करने लगे। इतना छोटा झोपड़ा!_


_और तब अंततः एक गधे ने आकर जोर से आवाज की, दरवाजे को हिलाया। फकीर ने कहा: दरवाजा खोलो। पत्नी ने कहा: अब तुम पागल हुए हो, यह गधा है, आदमी भी नहीं! फकीर ने कहा: *हमने आदमियों के कारण दरवाजा नहीं खोला था, अपने हृदय के कारण खोला था। हमें गधे और आदमी में क्या फर्क?* हमने मेहमानों के लिए दरवाजा खोला था। उसने भी आवाज दी है। उसने भी द्वार हिलाया है। उसने अपना काम पूरा कर दिया, अब हमें अपना काम पूरा करना है। दरवाजा खोलो!_ 


_उसकी औरत ने कहा: अब तो खड़े होने की भी जगह नहीं है! उसने कहा: अभी हम जरा आराम से खड़े हैं, फिर सटकर खड़े होंगे। और याद रख एक बात कि *यह कोई अमीर का महल नहीं है कि जिसमें जगह की कमी हो!* यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है!_


_यह कहानी मैंने पढ़ी, तो मैं हैरान हुआ। उसने कहा: यह कोई अमीर का महल नहीं है जिसमें जगह न हो। यह गरीब का झोपड़ा है, इसमें खूब जगह है। *जगह महलों में और झोपड़ों में नहीं होती, जगह हृदयों में होती है। अक्सर तुम पाओगे, गरीब कंजूस नहीं होता।*_ 


_कंजूस होने योग्य उसके पास कुछ है ही नहीं। पकड़े तो पकड़े क्या?_ *जैसे—जैसे आदमी अमीर होता है, वैसे कंजूस होने लगता है; क्योंकि जैसे—जैसे पकड़ने को होता है, वैसे—वैसे पकड़ने का मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता है।*


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